12th Day :: Bazaarvaad : D most fatal thing today
इधर कुछ दिनों से स्वदेसी आन्दोलन जोर पकड़ता जा रहा है. भ्रष्टाचार , काले धन के साथ-साथ यह मुद्दा भी ज़रूरी है, मैं मानता हूँ, लेकिन जिस तरह से हमारे देश की सारी समस्याओं के लिए सिर्फ विदेशियों को दोष देकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले रहे हैं, वह गलत है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि विदेशी मुद्दे की हवा में हमारे देश के अपने लोग जो भ्रष्टाचारी हैं , वे न बचने पायें और ये मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे की तरह हमारे देश के भ्रष्ट राजनेताओं के लिए एक नया 'political weapon' न बन जाये.
सौभाग्य से पिछले कुछ दिनों में कुछ special persons & special conditions की वजह से हिन्दू-मुस्लिम मुद्दा और स्टेट, भाषा आदि मुद्दों को जनता ने सामाजिक सौहार्द्र से समाप्त कर दिया है या कम कर दिया है, इसके लिए मैं लोगों को बधाई देता हूँ. लेकिन जिन लोगो का फायदा लोगों के आपसी झगड़े से ही होता है, वो ऐसे मुद्दों के सहारे सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ने और अपने राजनैतिक हित साधने की कोशिश कर सकते हैं. इसलिए हमें यह मुद्दा पूरी समझदारी के साथ उठाना चाहिए और अपना aim निर्धारित करना चाहिए कि हमें सिर्फ विदेशियों का विरोध करना है या हर तरह के (देश के अंदर और बाहर दोनों) लूट और भ्रष्टाचार का विरोध करना है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि विदेशियों और multinational companies का विरोध करने में हम इतने न खो जाएँ कि हमारे देश की companies और भ्रष्टाचारियो को देश लूटने की खुली छूट मिल जाए. वैसे इस बात की गारंटी भी कोई नहीं दे सकता कि बाहरी कंपनियों पर रोक लगाने के बाद ये स्वदेशी नाम रखकर हमें वही product नहीं बेचेंगी . और तब हम स्वदेशी का ठप्पा देखकर उसी चीज़ को और भी ऊँचे दाम पर नहीं खरीदेंगे !
e.g. अंग्रेज़ चले गए , मगर उनकी 'बाँटो और राज करो' की नीति हमारे राजनेता आज भी इस्तेमाल करते हैं और हम उन्हें 'अपना' समझकर उनका विरोध भी नहीं करते।
e.g. अंग्रेज़ चले गए , मगर उनकी 'बाँटो और राज करो' की नीति हमारे राजनेता आज भी इस्तेमाल करते हैं और हम उन्हें 'अपना' समझकर उनका विरोध भी नहीं करते।
इतिहास गवाह है कि जिस देश या साम्राज्य को बड़ी-बड़ी बाहरी शक्तियां पराजित नहीं कर पायीं वहां कुछ अंदरूनी स्वार्थी तत्वों ने पीठ में छुरा भोंक कर तख्तापलट कर दिया और मनमाने ढंग से लूटा . वर्तमान में पाकिस्तान इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है और past में खुद हमारा अपना देश .
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेज हमारे देश पर राज कर पाए तो सिर्फ कुछ लालची व्यापारियों और कुछ स्वार्थी राजाओं के वजह से , जिन्होंने अपने आपसी झगडे और स्वार्थपूर्ति के लिए अंग्रेजों का साथ दे दिया .
और अगर अंग्रेज ही हमारी सभी परेशानियों कि जड़ थे तो आज़ादी के 50 -60 वर्षों बाद भी हम अपना पर्याप्त विकास क्यों नहीं कर पाए , इन वर्षों में देश के सरकारी धन को लूटने वाले क्या वही अंग्रेज थे ? नहीं , ये हममे से ही थे और आज भी हैं . हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सामने के दुश्मन से लड़ना आसान होता है क्योंकि वो दिखाई देते हैं लेकिन पीठ में छुरा भोंकने वाले हमेशा ज्यादा खतरनाक होते हैं। .
और अगर अंग्रेज ही हमारी सभी परेशानियों कि जड़ थे तो आज़ादी के 50 -60 वर्षों बाद भी हम अपना पर्याप्त विकास क्यों नहीं कर पाए , इन वर्षों में देश के सरकारी धन को लूटने वाले क्या वही अंग्रेज थे ? नहीं , ये हममे से ही थे और आज भी हैं . हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सामने के दुश्मन से लड़ना आसान होता है क्योंकि वो दिखाई देते हैं लेकिन पीठ में छुरा भोंकने वाले हमेशा ज्यादा खतरनाक होते हैं। .
इसलिए हमें किसी का भी विरोध सही और गलत के आधार पर करना होगा और समर्थन उसकी क्वालिटी के आधार पर. यानी की in d last we have to choose what is really beneficial to our health, family & country then discard what is harmful or unnecessary.
मदर टेरेसा एक विदेशी महिला थी, तो क्या हम हमारे देश के दीन-दुखियों के लिए किये गए उनके कार्यों को भुला सकते हैं? नहीं. मगर अगर वो आज जिंदा होती तो ये राजनेता और धर्म के ठेकेदार (जो अपनी गुलाम मानसिकता को लोगो पर थोपने के लिए किसी भी अच्छे काम या परिवर्तन को बर्दाश्त नहीं कर सकते ) उन्हें भी विदेशी agent करार दे देते. अगर टेरेसा जैसे लोग सिर्फ इसलिए गलत मान लिए जाए क्योंकि वो विदेशी थे तो अफ्रीका में गाँधी जी को भी नहीं पूजा जाना चाहिए.स्वामी विवेकानंद जी को हमने तब तक महत्व नहीं दिया जब तक कि वो विदेश में लोकप्रिय नहीं हो गए. वर्तमान में देखें तो हमने योग को तब तक नहीं स्वीकार किया जब तक कि ये विदेश जाकर 'योगा' नहीं बन गया जबकि इससे हम अच्छी तरह परिचित थे .
मदर टेरेसा एक विदेशी महिला थी, तो क्या हम हमारे देश के दीन-दुखियों के लिए किये गए उनके कार्यों को भुला सकते हैं? नहीं. मगर अगर वो आज जिंदा होती तो ये राजनेता और धर्म के ठेकेदार (जो अपनी गुलाम मानसिकता को लोगो पर थोपने के लिए किसी भी अच्छे काम या परिवर्तन को बर्दाश्त नहीं कर सकते ) उन्हें भी विदेशी agent करार दे देते. अगर टेरेसा जैसे लोग सिर्फ इसलिए गलत मान लिए जाए क्योंकि वो विदेशी थे तो अफ्रीका में गाँधी जी को भी नहीं पूजा जाना चाहिए.स्वामी विवेकानंद जी को हमने तब तक महत्व नहीं दिया जब तक कि वो विदेश में लोकप्रिय नहीं हो गए. वर्तमान में देखें तो हमने योग को तब तक नहीं स्वीकार किया जब तक कि ये विदेश जाकर 'योगा' नहीं बन गया जबकि इससे हम अच्छी तरह परिचित थे .
मैं इस तरह विदेशियों का गुड़गान नहीं कर रहा हूँ बल्कि ये कह रहा हूँ कि विदेशियों में भी कुछ लोग अच्छे हैं , past में जिन्होंने हमारे देश की आज़ादी और विकास में योगदान दिया है और आगे भी हमारी help कर सकते हैं. e.g. जर्मनी ने सुभास चन्द्र बोस को आज़ाद हिंद फ़ौज बनाने में मदद किया था और वो भी बिना किसी लालच के , क्योंकि उस समय हम खुद गुलाम थे तो जर्मनी को कोई फायदा कैसे दे सकते थे .
अगर सही-गलत में फर्क किये बिना हम हर विदेशी चीज़ का बहिष्कार कर देंगे तो हम ये कैसे सोच सकते हैं कि विदेशी हमारी चीज़ों को स्वीकार करेंगे, फिर चाहे वो हमारा योग , अध्यात्म , आयुर्वेद हो या हमारे serviceman, bussinessman aur student ही . पर्यटन भी विदेशियों पर ही निर्भर होता है. मतलब कि कुछ चीज़ों के लिए हम भी विदेशियों पर निर्भर हैं. अब सवाल ये है कि हम कर क्या सकते हैं ?
हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अपने देश के भी कुछ लुटेरी कंपनियों का विरोध कर सकते हैं , इनके unnecessary products को न खरीदकर हम अपने धन की बर्बादी को रोक सकते हैं और इन्हें सही , helthful product उचित दाम पर बेचने के लिए मजबूर कर सकते हैं .
अगर हम ध्यान दे सकें तो हमें महसूस होगा की अँगरेज़ भी एक कंपनी के रूप में भारत में आये थे जिसका नाम था 'ईस्ट इंडिया कंपनी' और हमारी नासमझी का फायदा उठाते हुए हमें लूट कर चले गए .
वास्तव में किसी कंपनी का कोई जाति , धर्म या देश नहीं होता , इनके लिए सभी ग्राहक हैं और इनका उद्देश्य किसी भी तरह से लूटना होता है . ग्राहक चाहे अपने देश का हो या विदेश का इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता ,ये किसी को कोई concession नहीं देते .
दूसरों को क्या कहें अब तो हमारे देश में भी सरकार background में ही सही पर corporate world द्वारा ही उनकी सुविधानुसार ही चलाई जा रही है न की जनता के सुविधानुसार . हमारी विदेश नीति तो 100% corporate world के इशारे पर बनती है . china के दबंग व्यवहार और बिना गारंटी वाले बेहद घटिया सामान से हमारे लोगों , कंपनियों और सरकार को होने वाले आर्थिक नुकसान (जो की पकिस्तान के नकली नोटों से होने वाले नुकसान से भी ज्यादा है ) और युद्ध में अपने जवानों को खोने के बावजूद हम अगर चीन को गले लगाने को बेताब हैं तो इसके पीछे हमारी दरियादिली नहीं बल्कि परदे के पीछे का गुप्त समझौता है की "तुम हमारे लोगों को लूटो और हमें अपने लोगों को लूटने दो" . हमारे देश में जनसँख्या का मुद्दा क्यों समाप्त हो गया ? इसलिए नहीं की ये अब कोई समस्या नहीं रहा बल्कि इसलिए कि इन कंपनियों को लूटने के लिए अधिक ग्राहक ,काम करने के लिए सस्ते वर्कर मिलते हैं और हमारे नेताओं को वोटर !
वैसे किसी कंपनी का कोई अपना देश नहीं होता . ये हमारे देश को लूट रहीं है तो अपने देश को भी नहीं छोड़ती . आखिर विदेशी अपने देश में भी पानी की बोतल लेकर क्यों घुमते है ? कुछ लोग इसे care 4 hygiene कहते हैं , पर वास्तव में ये पानी की बोतल बेचने वाली कंपनियों द्वारा फैलाया गया डर है जो उन्हें hyper hygienic बनाता है . इसी वजह से वे handpump जैसे पानी के direct स्रोत से कतराते हैं .
अपने देश में एक रेल मंत्री द्वारा plastic glasses की जगह मिट्टी के कुल्हड़ और cold drinks की जगह milk products लॉन्च करवाया गया था मगर उनके जाते ही ये सभी प्रोडक्ट रेलवे स्टेशनों से हट गए , क्या इसके पीछे ऐसी ही कंपनियों का हाथ नहीं हो सकता ?
इसलिए आज परिवारवाद , साम्राज्यवाद , क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद के बाद बाजारवाद को दुनिया से मिटाने का समय आ गया है !
* Some fatal example of Bazarvaad :-
1. कई लोग मीठे पान-सुपारी से शुरुआत करते हैं फिर ज़र्दा पान-सुपारी, फिर गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, भांग, बियर से होते हुए शराब-शबाब और अंत में गांजा, चरस और हेरोइन तक पहुँच जाते हैं।
2. हर साल त्योहारों की संख्या में हो रही वृद्धि भी बाजारवाद का ही उदाहरण है जिनमें महिलाओं को मुख्य रूप से टारगेट किया जाता है और जो हर परिवार की अर्थव्यवस्था पर पूरे साल बोझ डालता है।
3. ज्यादा दहेज़ के चलन को भी बाजारवाद से प्रेरित माना जा सकता है।
* Some fatal example of Bazarvaad :-
1. कई लोग मीठे पान-सुपारी से शुरुआत करते हैं फिर ज़र्दा पान-सुपारी, फिर गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, भांग, बियर से होते हुए शराब-शबाब और अंत में गांजा, चरस और हेरोइन तक पहुँच जाते हैं।
2. हर साल त्योहारों की संख्या में हो रही वृद्धि भी बाजारवाद का ही उदाहरण है जिनमें महिलाओं को मुख्य रूप से टारगेट किया जाता है और जो हर परिवार की अर्थव्यवस्था पर पूरे साल बोझ डालता है।
3. ज्यादा दहेज़ के चलन को भी बाजारवाद से प्रेरित माना जा सकता है।